Sunday 18 January 2015

अग्निमांध्य(AGNIMANDHYA) का उपचार

परिचय

 शरीर का पालन-पौषण भोजन द्वारा  होता है भोजन शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा पाचन क्रिया करता है,इस पाचन क्रिया द्वारा भोजन को रस मे परिवर्तित किया जाता है,फिर रस से रक्त,मांस आदि सप्त धातूओ की पुष्टि होती है और शरीर नीरोग रहता है यह पाचन की क्रिया जठराग्नि द्वारा मुख्य रूपसे आमाशय-पक्वाशय मे सम्पन्न होती है लेकिन जब किन्ही कारणो से अग्नि मंद हो जाती है तो भुख की कमी हो जाती है जिसे आयुर्वेद मे अग्निमांध्य कहते है
"बलमारोग्यमायुश्च प्राणाश्चाग्नौ प्रतिष्ठिताः"च.सु.27/32,अर्थात शारीरिक बल,आरोग्य,जीवन,और प्राण- धारण  यह सब कुछ अग्नि के अधीन है
जठराग्नि की क्षीणता से मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि के समभाव मे रहने से पुरूष यावज्जीवन नीरोग रहता है,जठराग्नि के मंद,विषम,या तीक्ष्ण होने पर अनेक प्रकार के रोग होते है,
लक्षण 
(1) वातिक अग्निमांध्य के लक्षण-उदरशूल,मलावरोध,अधोवायु की रुकावट,अंगो मे जकडाहट, हाथ-पेरौ मे दर्द, अन्न का पाचन कठिनाई से होना,
(2)पित्तज अग्निमांध्य के लक्षण-शिर मे चक्कर आना,तृष्णाकी अधिकता, खट्टी डकार के साथ मुख से धुँआ जैसा निकलना,पसीना आना,अरूचि
(3)कफज अग्निमांध्य के लक्षण-शरीर मे भारीपन,मीठा डकार आना,वमन की ईच्छा होना,या वमनहोना,मुख मीठा रहना,अंगो मे थकावट, आलस्य, मैथून की अनिच्छा आदि लक्षण होते है,
अग्निमांध्य की चिकित्सा
अग्निमांध्य रोग एक बहुत ही जटिल व्याधि है यह मुख्य रूप से कफ जन्य व्याधि है फिर भी यदि उपरोक्त लक्षणो मे से ज्यादातर लक्षण शरीर मे दिखाई दे तो किसी सुयोग्य आयुर्वेद चिकित्सक से उचित परामर्श लेकर ही चिकित्सा करावे,कुछ चिकित्सा निम्न लिखित है जिसे सावधानी पुर्वक चिकित्सक की देखरेख मे करे-
वात प्रधान अग्निमांध्य मे- शिवाक्षारपाचन चुर्ण, सामुद्रादि चुर्ण, हिंग्वाष्टक चुर्ण, अग्निमुख चुर्ण, जीरकादि चुर्ण आदि का प्रयोग करे
पित्तप्रधान अग्निमांध्य मे- सितोपलादि चुर्ण,यवानीषाढव चुर्ण,आदि का प्रयोग करे
कफ प्रधान अग्निमांध्य मे-मूलासव,मध्वरिष्ट,पिप्पली मूलादि चुर्ण,आदि का प्रयोग करे,अग्नितुंडी वटी एक उत्तम औषधि है
अग्निमांध्य मे अदरक का प्रयोग-

"भोजनाग्रे सदा पथ्यम लवणाद्रकभक्षणम"(भा.प्र.) अर्थात भोजन करने के पहले अदरक की कतरन सैंधा नमक के साथ चबाकर खानी चाहिये,क्योकि अग्निमांध्य रोग कफ प्रधान है और अदरक उष्ण्वीर्य,कटु रस युक्त  तथा रूक्ष होने के कारण कफज विकार नाशक और अग्निसंदीपन,रूचिकारक,जीभ एवम कंठ का शोधनकरने वाला होता है, रूचि के अनुसार सिरका और अदरक को समभाग मे मिलाकरखाने सेअग्निमांध्य नष्ट होजाता है,अदरक के साथ हरिमिर्च,धनिया की पत्ती,पके टमाटर,पतली मूली,नीम्बू का रस और नमक मिलाकर सलाद बनाकर भोजन के लेना भोजन मे रूची उत्पन्न करता है,
अन्य उपाय-
1. चाय अधिक मात्रा मे ना पिये, चाय कषाय रस वाला होता है, और कषाय रस वात प्रकोपक होने सेवातज अग्निमांध्य को उत्पन्न कर सकता है अधिक मात्रा मे पीना जठराग्नि को मंद बनाता है,
2.व्यायाम करना चाहिये क्योकि यह रोग कफ प्रधान रोग है और कफ को घटाने मे व्यायाम का बडा महत्व है
3.उष्ण जल पीना चाहिये, क्योकि वह अग्नि को प्रदीप्त करता है,तथा कफ नाशक है


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