Sunday 28 December 2014

वातरक्त -GOUT

परिचय(introduction)-
वातरक्त को अंग्रेजी मे gout कहते है,चरक ने इसे "आढ्यरोग" कहा है क्योकि स्थूल (fatty) एवम धनी(rich) लोगो मे यह रोग अधिक होता है, इसे "खुड्डवात"भी कहते है क्योकि इसमे रोगी लंगडा होकर चलने लगता है,
कारण(couse)-
प्रायः सुकुमार प्रकृति वाले तथा मिथ्या आहार-विहार करने वाले,शोक,शराब,स्त्रीसम्भोग, तथा व्यायाम इनके अधिक सेवन से,स्नेहादिको का अनुचित प्रयोग करने से वातरक्त रोग होता है,
मुख्य कारण-शराब,मांस का अतिसेवन,व्यायाम का अभाव,शोक, क्रोध,चिंता,आदि मानसिक विकार,तथा अतिमात्रा मे लवण,अम्ल,कटु,क्षार,स्निग्ध,तथा उष्ण एवम अजीर्ण की स्थिति मे भोजन करने से यह रोग होता है,
सम्प्राप्ति(how to make disease)-
शीत,रुक्षादि, कारणो से वायु कुपित हो जाती है, एवम तीक्ष्ण,अम्ल,उष्ण,क्षार,आदि भोज्य पदार्थो के सेवन से रक्त कुपित हो जाता है वह कुपित रक्त शीघ्र संचरण करने वाले वायु के मार्ग को अवरोध कर देता है तदनंतर वह बढा हुआ वायु शरीरस्थ सम्पुर्ण रक्त  को दुषित कर देता है वायु की प्रबलता होने के कारण वातरक्त कहलाता है,
पुर्वरूप(pre-symptoms)-
दोनो पैरो मे सुन्नता ,पैर मे पसीने की अधिकता, पैर कभी गरम कभी ठंडे, शरीर मे विवर्णता,सुई चुभने की पीडा , भारीपन,तथा दाह होती है
लक्षण(symptoms)

स्थानिक लक्षण-वात,पित,कफ के आधार पर स्थानिक लक्षण दिखाई देते है,
वात के कारण-दोनो पैरो मे तेज दर्द, सुई चुभने की पीडा,त्वचा फटने की सी पीडा,शुष्कता,तथास्पर्श ज्ञान की कमी,प्रतीत होती है
पित्त के कारण-दोनो पैरो मे तेज दाह,अधिक गर्मी, लालरंग, सुजनतथापिलपिलेपन से युक्त हो जाते है,
कफ के कारण-दोनो पैर खुजली युक्त,श्वेत,ठंडे,शोथयुक्त,मोटे,तथा कठोर हो जाते है
 सार्वदेहिक लक्षण- ज्वर 101-102डिग्रीफारनेहाइट तक रहता है,तृषा,जी मिचलाना, पैर के अंगुठे की संधि, कभी गुल्फ संधि, कभी जानु संधि ,कभी मणिबंध संधियो मे विकृति होती है,पीडा दिन मे कम रात मे अधिक होती है,
जांच करवाने पर - मुत्र मे युरिक एसिड,तथा युरेट्स की अधिक मात्रा पाई जाती है
प्रकार(types)-दो प्रकार का होता है (1)उतान(acute),(2)गम्भीर(chronic)
(1)उतान- जो वातरक्त त्वचा और मांस मे आश्रित होता है,(2)गम्भीर-जो वातरक्त रक्त,त्वचा,मांस,मेद,आदि भीतरी धातुओ मे आश्रित होता है
दोषो के आधार पर वातरक्त आठ प्रकार का होता है,
उपद्रव(complications)-इस रोग की उतम चिकित्सा ना होने पर कुछ दिन,मास,या वर्ष भर बाद दौरे आया करते है,अंगुलिया टेडी होजाती है,पैर सडने लगते है,रोगी लंगडा हो जाता है
चिकित्सा(treatment)-आयुर्वेद मे रक्तवात की चिकित्सा मे रक्तमोक्षण को ही महत्वपुर्ण माना गया है, योग्य चिकित्सक द्वारा श्रंग,जोंक,सुई,या तुंबी,से सिरावेध कराना चाहिये,
उचित एवम पुर्ण चिकित्सा हेतु किसी नजदीकी आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श करे अथवा मुझे नीचे दिये गये Email Box पर Email करे,अपनी चिकित्सा कभी भी स्वम ना करे,
एक सुत्र चिकित्सा-"निदानम परित्यज्य"अर्थात रोग के कारण का त्याग करे,इति
(संदर्भ- चरक सहिता, सुश्रुतसहिता,अष्टांग संग्रह एवम मेरे अनुभव के आधार पर)

Tuesday 23 December 2014

आरोग्य का मूलमंत्र

                       आयुर्वेद मे स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा इस प्रकार बताई है कि "जिस व्यक्ति के दोष समान हो, अग्नि सम हो,सात धातुये भी सम हो,तथा मल भी सम हो शरीर की सभी क्रियाये समान क्रिया करे, इसके अलावा मन , सभी इंद्रियाँ तथा आत्मा प्रसन्न हो,वह मनुस्य स्वस्थ कहलाता है"
                       जो शरीर को दुषित करे वह दोष कहलाता है शारीरिक दोष तीन होते है वात ,पित ,और कफ,ये हमारे शरीर मे हवा,अग्नि,तथा जल के सुचक है,तथा मन को दुषित करने वाले दोष मानस दोष दो होते है -रज,तम, इनको, समान रखेंगे तो हम स्वस्थ रहेंगे ,साथ ही धातुओ को भी समान रखना है ये सात है- रस,रक्त ,मांस, मेद, अस्थि,मज्जा,और शुक्र,स्त्रियो मे आर्तव,ये सातो शरीर को धारण करती है इस लिये धातु कहलाती है ये समान मात्रा मे अपना -अपना काम करती रहेंगी तो हम स्वस्थ रहेंगे लेकिन इनके अलावा मल भी समान रूप से कार्य करने चाहिये मल भी तीन है मल(पुरीष,नाक,कान आदि का मल),मुत्र,स्वेद,ये तीनो समान रूप से कार्य करते रहे ,शरीर की क्रिया (सोना,जागना आदि) सम हो ,आत्मा,सभी इंद्रियाँ, तथा मन प्रसन्न हो,तब हम स्वस्थ होंगे,
                           
                         जीवन विज्ञान के रूप मे प्रतिष्ठित आयुर्वेद का सिद्धांत है कि"रोगस्तु दोष वैषम्यम दोष साम्यमरोगता"अर्थात दोषो का शरीर मे विषमावस्था मे रहना रोग है एवम साम्यावस्था मे रहना ही आरोग्य है
                          असात्म्य आहार ,ऋतुओ मे परिवर्तन ,असामान्य आचरण एवँ जनपदोध्वंस के कारण दोष कुपित होकर रोगो को उत्पन्न करते है रोग की स्थिति मे जो लक्षण दिखाई देते है वे दो प्रकार के होते है (1)प्रकृति-सम समवायजन्य एवँ (2) विकृति - विषमसमवायजन्य,
(1)प्रकृति-समसमवायजन्य-- इसस्थिति मे दोषो के समान ही लक्षण दिखाई देते है
(2)विकृति-विषमसमवायजन्य--इस स्थिति मे धातु के साथ दोषो का संसर्ग दिखाई देता है
                           आचार्य चरक ने रोगोत्पत्ति के वर्णन मे यह स्पस्ट लिखा है कि रोग की उत्पत्ति का मूल कारण परिग्रह है संचय की प्रवृति के कारण लोभ तत्पश्चात अभिद्रोह की उत्पति हुई ,अभिद्रोह से असत्य भाषण एवम इससे काम क्रोध आदि की प्रवृति के परिणाम स्वरूप आहार विहार के सम्यक पालन का ह्रांस होने की प्रवृति से अग्नि एवम वायु के विकारो से ग्रस्त होकर प्राणियो मे ज्वरादि रोगो का प्रवेश हुआ और प्राणियो की आयु का ह्रास होने लगा,
                            पुर्ण स्वस्थ रहने के लिये एक सुत्र है ‌‌-"हिताशी स्यात मिताशी स्यात कालभोजी जितेंद्रियः,"
  अर्थात हितकर भोजन करे, यथोचित भोजन करे,नियत समय पर भोजन करे,और इंद्रियोपर विजय प्राप्त करे,  

Saturday 20 December 2014

सर्दियोँ मे बनायेँ सेहत (How to make heath in winter?)

जब ऋतुओँ का वर्णन होता है तब तीन ऋतु मुख्य रूप से मानी जाती है,(1)सर्दी (2)गर्मी(3)वर्षा, जब इन तीन ऋतुओ को विभाजित करते है तब ये छ प्रकार की हो जाती है जिनमे वर्षा ऋतु मे कोई परिवर्तन नही होता जबकि गर्मी के दो भाग हो जाते है, बसंत और ग्रीष्म ,सर्दी के तीन भाग होते है शरद,हेमंत,शिशिर,ये तीनो ऋतुये बल कारक होती है इनमे बल की वृद्धि होती है अतः सर्दिया सेहत बनाने के लिये क्ष्रेष्ठ ऋतु होती है
(1)शरद-(आश्विन-कार्तिक) यह ऋतु स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपुर्ण है इसी लिये ऋषियो ने शतायु की कामना करते हुये सौ शरद ऋतुओ के जीने की इच्छा व्यक्त की है ,यथा ‌-"जीवेम शरदः शतम" , इस ऋतु मे मधुर,तिक्त,कषाय-रस,शीतल तथा लघु -आहार, मीठा दूध,मिक्ष्री युक्त हरड, अथवा आमला युक्त -चुर्ण आदि का सेवन करना चाहिये,                                                                                 (2)हेमंत-(मार्गशीर्ष-पौष)इस ऋतु मे सूर्य तुषार से प्रायः आच्छन्न रहता है,दिशाये धूल धूसरित होती है तथा शीतल पवन चलता है, इस ऋतु मे मधुर स्निग्ध,अम्ल तथा लवणयुक्त द्र्व्य , गेहुँ ,इक्षुरस तथा दुग्ध से बने पदार्थ सेवनीय है सौठ के साथ हरड का सेवन करना चहिये,                                                                                  (3)शिशिर-(माघ-फाल्गुन)इस ऋतु मे हेमंत के समान  ही आहार - विहार करना चाहिये,                                                                                                                  ये सभी बाते जीवन मे प्रयोग करने से ही जीवन मे आरोग्य की प्राप्ति होती है हम सब जानते है कि जीवन को आनंद मय बनाने के लिये अच्छा आहार तथा अच्छा विहार आवश्यक है, सर्दी मे अग्नि तीव्र रहती है इस लिये अग्नि को पुर्ण पौष्टिक आहार उचित समय पर मिलना चाहिये ,यदि इस ऋतु मे अग्नि को पुरा आहार नही मिले तो शरीर पुरे वर्ष भर कमजोर बना रहता है,
"आहार काले सम्प्राप्ते यो न भुंक्तेबुभुक्षितः,तस्य सीदति कायाग्निनिरिंधनःइवानलः", जब भी भुख लगे आहार ग्रहण करे ,लेकिन ऐसा भी नही कि सारे दिन आहार ही करते रहे और कोई परिश्रम नाकरे,यदि परिश्रम नही करेंगे तो भी अग्नि मंद हो सकती है अतः इस ऋतु मे उचित आहार तथा उचित परिश्रम का सन्योग बना कर रखे,
 इस ऋतु मे तरह तरह के पाक ,लड्डु, हल्दी की सब्जी, ताकत की दवाईयाँ ,आदि खुब मिलती है किराने वाले भी ताकत के नाम पर कई आयुर्वेदिक दवा बैचते नजर आते है लेकिन बहुत समझदारी से सोच समझ करही इनका  प्रयोग करना चाहिये, अपने चिकित्सक के परामर्श से दवा लेनी चाहिये,

 सर्दियो मे सही ढंग से उचित आहार विहार से सेहत बनाये अनुचित आहार विहार से सेहत बिगाडे नही, इति       

Tuesday 16 December 2014

आयुर्वेद और हम

     
    जब भी आयुर्वेद का नाम आता है तो एक आपनापन सा महसूश होता है क्योकि आयुर्वेद हमारे देश की चिकित्सा पध्द्ती है जिसके माध्यम से हम अपना जीवन मंगल मय बनाते है जन्म से लेकर अंतिम श्वास तक आयुर्वेद हमारे साथ ही रहता है , जन्म के समय पहली घुट्टी दादाजी या दादी माँ के हाथ से और मरते समय अंतिम गंगाजल और तुलसीदल पुत्र के हाथ से लेने का विधान शास्त्रो मे लिखा गया है ये सब इतना महत्वपुर्ण है कि हमे आयुर्वेद अपना सा लगता है ,लेकिन जो वस्तु सुलभ हो या आसानी से मिल जाये उसकी कद्र कम होती है ऐसा ही कुछ आयुर्वेद के साथ भी हुआ है, कहते है ना "घर की मुर्गी दाल बराबर", हमे सोचना चाहिये कि जो पध्द्ती हमारे लिये इतनी जरूरी है और हम उसकी ही  उपेक्षा कर रहे है
              आयुर्वेद  केवल एक चिकित्सा पध्द्ती ही नही है बल्कि पुरा जीवन विज्ञान है इस विज्ञान मे एक -एक सुत्र पुरा रोगोपचार बताने मे सक्षम है उदाहरण के लिये इस सुत्र को देखो - अष्टांगह्रदय मे लिखा है "हितासि स्यात, मितासि स्यात,कालभोजी जितेंद्रिय"अर्थात हित आहार करे ,अल्प आहार करे,समय पर आहार करे, और इंद्रियो पर विजय प्राप्त करे ,हमेशा स्वस्थ रहेंगे< इतना छोटा सा सुत्र पुरे स्वास्थ्य की परिभाषा बता रहा है                      आयुर्वेद के दो उद्देस्य है "स्वथस्य स्वास्थ्य रक्षणम,आतुरस्य विकार प्रशमनम च" अर्थात स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना, तथा अस्वस्थ के विकार को दूर करना, हमारी प्रथम मनोकामना भी ये ही रहती है कि मै हमेशा स्वस्थ रहू और कहा भी गया है "पहला सुख निरोगी काया"और आयुर्वेद का पहला उद्देस्य भी स्वस्थ व्यक्ती के स्वास्थ्य की रक्षा करना ही है अतः यह बात निर्बाध रूप से कह सकते है कि आयुर्वेद मानव मात्र की सेवा के लिये ही बना है, हमारा जीवन प्रातःकाल की चाय से लेकर रात्री कालीन के दुध तक आयुर्वेद से ही जुडा    हुआ है
              प्रातःकाल जल्दी जगना, उठकर माता पिता ईष्ट देव का स्मरण करना, स्नान ध्यान आदि सभी बाते हमने आयुर्वेद से ही सीखी है,दिनचर्या ,रात्रीचर्या, ऋतुचर्या ये सब बाते समाज को आयुर्वेद की ही देन है इतना उपयोगी ज्ञान का भंडार हमारे पास है फिर हम आज अंग्रेजो का मुँह ताक रहे है इसका क्या कारण है कि हम इतने ज्ञान वान हो कर भी मूल ज्ञान से वंचित है आयुर्वेद हमारे ग्रंथो मे ही सिमट कर रह गया,
                हमे आयुर्वेद को जीवन मे उतारना चाहिये,आयुर्वेद  हमारी जीवन पध्द्ति है इससे जीवन को जीने मे काम मे लेना चाहिये, इति 

Sunday 14 December 2014

स्वस्थ एवम दीर्घायु

                        "आत्यन्तिकम  व्याधिहरम जनानाम,चिकित्सकम वेद विदोवदंति,
                         संसार ताप त्रय नाश बीजम, गोविंद दामोदर माधवेति,"
                        अर्थात- वेद वेताओ का कहना है गोविंद दामोदर और माधव ये नाम मनुष्यो के समस्त रोगो को समूल उन्मूलन करने वाले भेषज है और संसार के (आधिभौतिक,आधिदेविक,औरआध्यात्मिक) त्रिविध तापो का नाश करने के लिये बीजमंत्र  के समान है,
                    " सर्व रोगोपशमनम सर्वोपद्रव नाशनम,शांतिदम सर्वरिष्टानाम हरेनामनुकीर्तनम,"
                   अर्थात-  हरिनाम संकीर्तन सभी रोगो का उपशमन करने वाला और समस्त अरिष्टो की शांति करने वाला है
                    हितकारी आहार और विहार का सेवन करने वाला विचार पुर्वक काम करने वाला , काम क्रोधादि विषयो मे आसक्त ना रहने वाला, सभी प्राणियो पर समद्रष्टि रखनेवाला ,सत्य बोलने मे तत्पर रहने वाला , सहन शील और आप्त पुरूषो की सेवा करने वाला मनुष्य निरोग (रोगरहित) रहता है,सुख देने वाली मति ,सुख कारक वचन और सुख कारक कर्म , अपने अधीन मन तथा शुद्ध पाप रहित बुद्धि जिसके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने,तपस्या करने , और योग सिद्ध करने मे तत्पर रहता है,उसे शारीरिक और मानसिक कोई भी रोग नही होते,वह सदा स्वस्थ और दीर्घायु बना रहता है,
                   स्वामी रामसुख दास जी महाराज कहते है कि वास्तविक आरोग्य परमात्मा की प्राप्ति मे ही है , इसलिये गीता मे परमात्मा को अनामय कहा है-"जन्मबंधविनिर्मुक्ताःपदमगच्छ्न्त्यनामयम"(2/51),आमय नाम रोग का है,जिसमे किंचित मात्र भी विकार न हो उसे अनामय कहते है,अनामय पद की प्राप्ति होंने पर इन जन्म मरण रूप रोग का सदा के लिये नाश हो जाता है इसलिये जो महापुरूष परमात्म तत्व को प्राप्त हो चुके है, वही असली नीरोग है,तात्पर्य है कि आत्मा और परमात्मा -दोनो नीरोग है ,रोग तो केवल शरीर मे ही आता है इसलिये कहा गया है -"शरीरम व्याधिमंदिरम"
                   मेरे परम पुज्य पिताजी श्री मालचंद जी लिखते है-

"स्वप्नवत है सारा संसार ,यहाँ के मिथ्या सब व्यापार , सभी को रहना दिन दो चार अंत मे जाना हो लाचार,
म्रत्यु  के आघातो से पुर्व करेंगे प्राणो का उपचार, भला फिर क्यो होंगे संत्रस्त शक्ति युक्त होंगे जब आधार,
अंधेरा घिर आने से पुर्व प्रज्वलित दीप करे तैयार,भला फिरक्यो होंगे भयभीत,प्रकाशित होंगे जबसब द्वार,"
           " मंत्रे,तीर्थे,दिव्जे,देवे,दैवज्ञ,भेषजे,गुरौ,याद्रिशी भावना यस्य सिधिर्भवतिताद्रिशी,"
अर्थात-मंत्र मे ,तीर्थमे, ब्राह्मण मे ,देवता मे, दैवज्ञमे, औषधि मे, तथा गुरु मे जो जैसी भावना(निष्ठा) रखता है,उसे फल भी तद्नुरूप ही मिलता है
             अंत मे  एक सारगर्भित  बात ये है कि "अपने मन को परमात्मा मे लगाओ ,सब कुछ त्याग कर ईश्वर का ध्यान करो और ईश्वर कहा है अपने ह्रदय मे ,अतः सारा ध्यान ह्र्दय  मे केंद्रित करके अपने सम्पुर्ण शरीर का पालन स्वस्थ एवम दीर्घायु बनने के लिये करना चाहिये,