Sunday 25 January 2015

constipation(कब्ज)-cause and treatment

परिचय- यदि एक दिन-रात बीतने पर मलत्याग का वेग न हो तो उसे कब्ज कहा जा सकता है, इसके साथ अन्न मे अरूचि,उदरमे भारीपन,बार-बार अपानवायु का निकलना,मुत्रत्यागका बार-बार वेग होना इत्यादि कब्ज के लक्षण है,कब्ज के कारण मन मे मलीनता रहतीहै,साहसतथा उत्साह नही होता,
कारण(cause) -(1) कब्ज का मुख्य कारण पित्त की विकृति है,पित्त कीउत्पति की मात्रा अल्प होने से भोजन का पाचन नही हो पाता और भोजन के ना पचने पर भोजन का आमत्व उत्पन्न होता है,आमयुक्त भोजन का उत्तम विश्लेषण नही होता,और अविश्लेषित भोजन आँतोँ मे चिपकता है,ग्रहणी की शक्ति को क्षीण करता है,आँतोँ की सामान्य गति के अवरूद्ध होजाने से कब्ज उत्त्पन्न होताहै,
(2)शारीरिक परिश्रम का अभाव, आलस्य और आरामतलबी के कारण भी कब्ज होती है
(3)भोजन मे खट्टे भोज्य पदार्थ,सेँन्धा नमक, मिर्च,काली मिर्च आदि कम मात्रा मे खाने से या फिर अधिक मात्रा मे लेने भी कब्ज उत्त्पन्न होता है,
(4)कब्ज के अन्य कारणो मे कई रोग भी है-जैसे ज्वरमे पाचनक्रिया का ह्रास होना,पित्ताशय औरपित्त वाहिनी शोथ,खुन की कमी, पीलिया,कामला, आदि रोगो मे उग्र प्रकार का कब्ज हो जाता है, पेट मे कृमि और हाई ब्लडप्रेशर मे भी कब्ज हो जाताहै
(5)पाचनसंस्थान मे मुख से लेकर गुदा तक के अंगो मे किसी भी प्रकार की विकृति कब्ज उत्त्पन्न कर सकती है
उपचार(treatment)-(1)सर्व प्रथम पाचन संस्थान के सभी अंगो पर ध्यान देना चाहिये जैसे मुख मे यदि दाँत खराब है तो पहले दाँतो का ईलाज कराये,इसी प्रकार अन्य अंगो पर भी ध्यान देना चाहिये,
(2) भोजन समयपर करे,पान चाय आदि का सेवन ना करे ज्यादा चाय पीने से कब्ज होता है
(3)कब्ज मे लाभ के लिये उषःपान करने से कब्ज ठीक होता है
(4) खूब चबा-चबाकर भोजन करने से कब्ज दूर होता है
(5)रात्री मे शयन पूर्व उबला हुआ गरम पानी पीने से कब्ज दूर होता है
(6)तेल रहित सूखे मेवे तथा किशमिश, मुनक्का,अंजीर,खजूर,छुहाराआदि कासेवन विबन्ध नाशकहै
(7)योगासन और प्राणायाम कब्ज नाश करने मे आश्चर्यजनक लाभ करते है,आसनो मे- सर्पासन,पद्मासन, चक्रासन ,सर्वांगासन मुख्य है
(8)औषध चिकित्सा- आयुर्वेद मे सैकडोँ दवा है जो कब्ज को ठीक करती है,लेकिन दवा का प्रयोग हमेशा चिकित्सक की देखरेख मे ही करना चाहिये,कभी भी खुद स्वम अपने चिकित्सक ना बनेँ, कुछ औषधिया लिख रहा हुँ ये चिकित्सक की सलाह से ही ले-
हरितकी,अमलताश,कुटकी,और निशोथ येऔषधिया उत्तरोतर तीव्र कब्ज नाशक है
कब्ज नाशक एक उत्तम योग-
बैतरा सोँठ,छोटीपिप्पली, हल्दी,वायविडंग,वच,छोटीहरड प्रत्येकसमभाग चूर्ण बना ले,चुर्ण1/6भाग नमकऔर सभी द्रव्यो के बराबर गुड मिलाकर गोली बनावे और एक आँवला की मात्रा  मे शयन के पूर्व नित्य रात्री मे तीन दिन,पांच दिन, या सात दिन,तक लेना चाहिये,
दिन मे उत्तम जौ के आटे से निर्मित भोजन का एक बार करना चाहिये (च.चि.)
 हरे आँवले और मूंग के साथजल और अल्पस्नेह से पकाये हुये विना नमक वाले चावल को घृत मिलाकर दिन मे एक बार भोजन करना चाहिये (सु.चि.)
किसी भी दस्तावर दवा का प्रयोग प्रचार के आधार पर कदापि नही करना चाहिये,किसी योग्य चिकित्सक के परामर्श से ही करना चाहिये
कुछ निरापद कब्ज नाशक आयुर्वेदिक औषधि-
ईसबगोल कीभूसी, चैंती गुलाब की पत्ती, अमलताश वृक्ष के फूल, आँवले का मधुर पाक, ग्वारपाठे का गूदा, घी मे तली छोटी हरड, अंरडी के तैल मे तली छोटी हरड, मुनक्का,गरम पानी आदि निरापद औषधि है





Sunday 18 January 2015

अग्निमांध्य(AGNIMANDHYA) का उपचार

परिचय

 शरीर का पालन-पौषण भोजन द्वारा  होता है भोजन शरीर के विभिन्न अंगो द्वारा पाचन क्रिया करता है,इस पाचन क्रिया द्वारा भोजन को रस मे परिवर्तित किया जाता है,फिर रस से रक्त,मांस आदि सप्त धातूओ की पुष्टि होती है और शरीर नीरोग रहता है यह पाचन की क्रिया जठराग्नि द्वारा मुख्य रूपसे आमाशय-पक्वाशय मे सम्पन्न होती है लेकिन जब किन्ही कारणो से अग्नि मंद हो जाती है तो भुख की कमी हो जाती है जिसे आयुर्वेद मे अग्निमांध्य कहते है
"बलमारोग्यमायुश्च प्राणाश्चाग्नौ प्रतिष्ठिताः"च.सु.27/32,अर्थात शारीरिक बल,आरोग्य,जीवन,और प्राण- धारण  यह सब कुछ अग्नि के अधीन है
जठराग्नि की क्षीणता से मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि के समभाव मे रहने से पुरूष यावज्जीवन नीरोग रहता है,जठराग्नि के मंद,विषम,या तीक्ष्ण होने पर अनेक प्रकार के रोग होते है,
लक्षण 
(1) वातिक अग्निमांध्य के लक्षण-उदरशूल,मलावरोध,अधोवायु की रुकावट,अंगो मे जकडाहट, हाथ-पेरौ मे दर्द, अन्न का पाचन कठिनाई से होना,
(2)पित्तज अग्निमांध्य के लक्षण-शिर मे चक्कर आना,तृष्णाकी अधिकता, खट्टी डकार के साथ मुख से धुँआ जैसा निकलना,पसीना आना,अरूचि
(3)कफज अग्निमांध्य के लक्षण-शरीर मे भारीपन,मीठा डकार आना,वमन की ईच्छा होना,या वमनहोना,मुख मीठा रहना,अंगो मे थकावट, आलस्य, मैथून की अनिच्छा आदि लक्षण होते है,
अग्निमांध्य की चिकित्सा
अग्निमांध्य रोग एक बहुत ही जटिल व्याधि है यह मुख्य रूप से कफ जन्य व्याधि है फिर भी यदि उपरोक्त लक्षणो मे से ज्यादातर लक्षण शरीर मे दिखाई दे तो किसी सुयोग्य आयुर्वेद चिकित्सक से उचित परामर्श लेकर ही चिकित्सा करावे,कुछ चिकित्सा निम्न लिखित है जिसे सावधानी पुर्वक चिकित्सक की देखरेख मे करे-
वात प्रधान अग्निमांध्य मे- शिवाक्षारपाचन चुर्ण, सामुद्रादि चुर्ण, हिंग्वाष्टक चुर्ण, अग्निमुख चुर्ण, जीरकादि चुर्ण आदि का प्रयोग करे
पित्तप्रधान अग्निमांध्य मे- सितोपलादि चुर्ण,यवानीषाढव चुर्ण,आदि का प्रयोग करे
कफ प्रधान अग्निमांध्य मे-मूलासव,मध्वरिष्ट,पिप्पली मूलादि चुर्ण,आदि का प्रयोग करे,अग्नितुंडी वटी एक उत्तम औषधि है
अग्निमांध्य मे अदरक का प्रयोग-

"भोजनाग्रे सदा पथ्यम लवणाद्रकभक्षणम"(भा.प्र.) अर्थात भोजन करने के पहले अदरक की कतरन सैंधा नमक के साथ चबाकर खानी चाहिये,क्योकि अग्निमांध्य रोग कफ प्रधान है और अदरक उष्ण्वीर्य,कटु रस युक्त  तथा रूक्ष होने के कारण कफज विकार नाशक और अग्निसंदीपन,रूचिकारक,जीभ एवम कंठ का शोधनकरने वाला होता है, रूचि के अनुसार सिरका और अदरक को समभाग मे मिलाकरखाने सेअग्निमांध्य नष्ट होजाता है,अदरक के साथ हरिमिर्च,धनिया की पत्ती,पके टमाटर,पतली मूली,नीम्बू का रस और नमक मिलाकर सलाद बनाकर भोजन के लेना भोजन मे रूची उत्पन्न करता है,
अन्य उपाय-
1. चाय अधिक मात्रा मे ना पिये, चाय कषाय रस वाला होता है, और कषाय रस वात प्रकोपक होने सेवातज अग्निमांध्य को उत्पन्न कर सकता है अधिक मात्रा मे पीना जठराग्नि को मंद बनाता है,
2.व्यायाम करना चाहिये क्योकि यह रोग कफ प्रधान रोग है और कफ को घटाने मे व्यायाम का बडा महत्व है
3.उष्ण जल पीना चाहिये, क्योकि वह अग्नि को प्रदीप्त करता है,तथा कफ नाशक है


Sunday 11 January 2015

नींद का जीवन पर प्रभाव

आयुर्वेद का लक्ष्य सुखी तथा दीर्घ जीवन की प्राप्ति है जीवन
मे सुख- दुख का अनुभव नींद पर भी निर्भर करता है आचार्य चरक ने स्वाभाविक और यथोचित रूप से ली गई निद्रा एवम अस्वाभाविक और असम्यक रूप से सेवन की गयी निद्रा का जीवन पर पडने वाले प्रभावो का निम्न लिखित रूप से वर्णन किया है-
(1)सुख-दुख‌‌ - यथोचित रूप मे सेवन की गयी निद्रा सुख प्रदान करती है,स्वाभाविक निद्रा मनुष्य के सुखी होने की सूचना भी देती है,
इसके विपरीत अकाल या अनुचित रूप मे सेवन की गई निद्रा अनेक प्रकार के दुःखो का कारण बनती है,
 (2)पुष्टि-कार्श्य - पुष्टि-कार्श्य का तात्पर्य ,यहाँ शरीरके पुष्ट होने तथा दुबला-पतला होने से है,जब उचित रूप से नींद सेवन की जाती है तो शरीर मे आहार आदि का पाचन सम्यक रूप से होता है,जिससे शरीर मे रस-रक्तादि की पुष्टि निर्बाधरूप से निरंतर होती रहती है,और शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग पुष्ट होते रहते है,
अनुचित रूप से ली गई नींद से शरीरस्थ धातुओ का क्षय होता है जिससे मनुष्य दुबला-पतला हो जाता है या बलहीन हो जाता है
(3)बल-अबल- आयुर्वेद मे बलका दो अर्थ ग्रहण किया जाता है-पहला शक्ति ग्रहण तथा दुसरा विशिष्टव्याधि -क्षमत्व एवम ओज ग्रहण ,सम्यक नींद लेने से शरीर और मन मे रोगो केप्रति लडने की क्षमता बढती है,जिससे मनुष्य स्वस्थ रहता है,
यदि नींद का सेवन सम्यक रूप से नही किया जाता हैतो शरीर तथा मन मे रोगो के प्रति रक्षणशक्ति कम हो जाती है परिणामतः मनुष्य सदेव शारीरिक और मानसिक व्याधिओ से ग्रस्त रहता है
(4)वृषता-क्लिबता- वृषता का सामान्यतया अर्थ है वीर्यवृदिधतथा पौरूषशक्ति की वृद्धि और क्लिबता काअर्थ है नपुंसकता, सम्यक रूप से नींद लेने से शरीरस्थ धातुओ कीपुष्टि होती है जिससे शुक्र धातु की वृदिध होती है, सम्यक नींद लेने से मानसिक प्रसन्नता होती है,जिससे मन मे संकल्पशक्ति यथोचित रूप से विद्ध्मान रहती है जोकि सर्वोतम वृष्यभाव माना जाता है,
अनुचित रूप से या असम्यक रूप से ली गई नींद से धातुये क्षीण होती है जिससे शुक्र धातु की पुष्टि नही हो पाती,जिससे व्यक्ति मे शुक्र तथा ओज का क्षय होता है
(5)ज्ञान-अज्ञान - ज्ञानऔरअज्ञान भी नींद पर निर्भर करता है विषय,इंद्रिय,मन और आत्मा - इन चारो के सन्योग से ज्ञान होताहै जब इंद्रियाँ तथा मन - ये दोनो कार्य करते-करते थक जाते है तो नींद आती हैविश्राम के बाद वे पुनःअपने-अपने विषयो को ग्रहण करने मेसमर्थ हो जाते हैइस प्रकार सम्यक रूप से निद्रा  सेवन करने सेज्ञान ग्रहण की प्रक्रिया निर्बाध रूप से चलती रहती है,
जब सम्यक रूप से नींद का सेवन नही किया जाता है तो मन और इंद्रियाँ -दोनो ज्ञान ग्रहण करने मे समर्थ नही होती,
सम्यक नींद-- 
आयुर्वेद मे रात्रिस्वभावप्रभवा कोही सामान्य नींद कहाहै अतः मात्र रात्री काल मे आने वाली स्वाभाविक नींद को ही सम्यक नींद समझना चाहिये क्योकि चरक ने कहा है-"रात्रो  जागरणम रूक्षम स्निग्धम प्रस्वपनम दिवा"(च.सु.21/50),अर्थात रात्रि जागरण से रुक्षता उत्पन्न होतीहैतथा दिन मे सेवन से स्निग्धता बढती है,लेकिन निम्न अवस्थाओ मे दिन मे भी शयन किया जा सकता है-
(1)जिस व्यक्ति का शरीर अतिमात्रा मे मानसिक कार्य करने से क्षीण हो गया हो
(2)जिसे वमन अथवा अतिसार हुआ हो
(3)जो शारीरिक श्रम करता हो या पैदल यात्रा करता हो
(4)जो किसी चोट से ग्रसित हो, श्वास, क्षत, तथा हिक्का रोग से पीडित हो
(5)जो पागल हो,या क्रोध,भय आदि मनोवेगो से युक्त हो
(6)जो व्यक्ति इस प्रकार का काम करता हो,जिसमे रात्रिजागरण करना पडता हो
(7) ग्रीष्म ऋतु मे प्रत्येक व्यक्ति को दिन मे निद्रा सेवन करना चाहिये
निम्न लिखित व्यक्तियो को दिन मे कदापि नही सोना चाहिये-
जो मोटापे से ग्रस्त हो, नित्य दुध घी खाने वाले हो, कफज प्रकृति के हो,जीर्ण विष से पीडित हो तथा कंठगत रोग से ग्रस्त हो,
असम्यक नींद-
आयुर्वेद मे रात मे सेवन की जानेवाली नींद के अतिरिक्त अन्य नींद असम्यक नींद कहलाती है यह निम्नप्रकार की होती है-
(1)कफ के अत्यधिक बढने से उत्पन्न,(श्लेष्मसमुध्भवा)
 (2)मन तथा शरीर के अत्यधिक श्रम करने से उत्पन्न,(मनःशरीरश्रमसम्भवा)
 (3)अचानक आनेवाली नींद,(आगंतुकी)
(4) रोगो के कारण उत्पन्न,(व्याध्यनुवर्तनी)
(5)तामसिकविकारो से उत्पन्न (तमोभवा)
आजकल नींद लाने वाली औषधियो के सेवन का प्रचलन बढता जा रहा है औषधि से आने वाली नींद भी असम्यक नींद ही समझनी चाहिये,




Saturday 3 January 2015

ayurveda

आयुर्वेद की परिभाषा
आयुषः वेदः आयुर्वेदः अर्थात आयु के ज्ञान को आयुर्वेद कहते है 
आयु क्या है ?
जन्म से मृत्यु तक की समयावधि को आयु कहते है
आयु चार प्रकार की  होती है
१ हितायु २ अहितायु ३ सुखायु ४ दुखायु
जीवन जीना भी एक कला है जिसको यह कला आ जाती है वह जीवन को आनंद से जीता है वरना आयु  अपनी गति से चलती रहती है कभी हित कभी अहित ,कभी सुख कभी दुःख ,
यह कला कैसे सीखे ? तो पढते रहे यह ब्लॉग। 

" जान है तो जहान है।"

" जान  है तो जहान है।"
                 

           हम यह जुमला बार बार सुनते है और इस पर हम ज्यादा माथा पची नहीं करते क्योकि हम यह समझते है कि मृत्यु दो प्रकार की होती है अकाल और जराजन्य। और एक है  परेशानी युक्त जिंदगी। हम समझते है कि
हमारी जिंदगी कभी भी खत्म  होने वाली नहीं है। हम इस भरम मे अपनी जिंदगी काटते रहते है। कई बार ऐसा होता भी हमारी जिंदगी चलती रहती है बड़ी लंबी जिंदगी मगर बीमार सी थकी थकी सी और परेशानियों से भरी।

            हम जीवन में पेट भरने के लिए काम करते है जान को बचाये रखने की यह पहली प्रक्रिया है लेकिन हम इस प्रक्रिया को  जीवन में  इतना महत्व देने लगते है और अन्य सभी प्रक्रियाएँ गौण हो जाती है

             आयुर्वेद के विद्वानो ने लिखा है जिस प्रकार सारथी अपने रथ की देखभाल करता है उसकी सारसम्भाल करता है, उसी प्रकार मनुष्य को अपने शरीर की देखभाल करनी चाहिए। "सर्वं परित्यज्य शरीरं पालयेत...। अर्थात सभी कुछ त्याग कर शरीर का पालन करना चाहिए ।           

 देखभाल का मतलब सिर्फ़ पेट भरना मात्र नहीं है,बल्कि संपूर्ण शरीर की और अपना ध्यान देना है योगी लोग जब ध्यान लगाने की बात कहते है तब वे लोग अपने अंदर झाकने का जिक्र करते है कोई कहता है नाक पर नजर रखे कोई कहता है अपने भोंहे के बीच मे नजर रखें कोई नाभि पर ध्यान लगाने का जिक्र करते इन सब का एक ही मतलब है की अपने आपको देखो ,अपने आपको पहचानो। 

कैसे ? निम्न बिंदु है। …
           १ प्रकृति
            २ कर्म
            ३ लक्ष्य्
प्रकृति को जाने और यह तय करे क़ि मेरी प्रकृति क्या है और मुझे किस तरह से जीना है । किसके साथ किस प्रकार से रहना है । किस प्रकार का भोजन करना है । अपनी प्रकृति को जाने और सही तरह से जीने की कोशिश करे । यह मानव शरीर बहुत भाग्य से मिला है। तुलसी दास जी लिखते है " बड़े भाग्य मानस तन पावा" । इस शरीर को बड़े जतन करके  पुरे मनोयोग से पालन करना चाहिए । 

कर्म :- हम जैसे कर्म करते है वैसा फल अवश्य ही मिलता है । यह बात शास्त्रो में भी लिखी है और अनुभवी महापुरुषों ने भी कही है । इसलिए कर्म करने से पहले अच्छे बुरे की पहचान कर के फल का विचार करके ही कुछ करना चाहिए । कर्म फल भी अकाल मृत्यु का भय पैदा करती है । और जीवन संकट में आ सकता है 

लक्ष्य के लिए कहा गया है क़ि लक्ष्य विहीन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ होता है । जैसे पेंडुलम हिलता भर है , जाता कही नही है उसी प्रकार लक्ष्य विहीन व्यक्ति भी व्यर्थ जीवन बर्बाद करता है । जीवन को सुखमय बनाने के लिए एक बहूत अच्छा सा लक्ष्य बना कर जीवन जीना चाहिए ।लक्ष्य विहीन व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है । और असमय पर कभी कभी गलत कदम उठा लेता है । अपने जीवन को खतरे में डाल देता है  ।

ऊपर लिख़ी बाते यदि सही तरीके से समझ में आ जाये तो जान को कोई खतरा नहीं होगा। हम अपनी जिंदगी को अकाल मृत्यु से बचा सकते है और परेशानियों से भी। 

डॉ वेदप्रकाश कौशिक 
9828767018

गर्मी(लू)से बचने के उपाय

         इन दिनों गर्मी बहुत तेज हो रही है। गर्मियों में अपने शरीर का विशेष  ध्यान रखने की परम आवश्यकता है।
         

गर्मी(लू ) से  बचाव के उपाय। 



१ केरी का पना पीये, नींबू की शिकंजी पीये  
२ प्याज का सेवन करे 
३ पानी पी कर घर से निकले 
४ बासी भोजन ना करे 
५ कपडे से शरीर को ढक कर बाहर जाये 
६ ठंडे स्थान पर रहे 
७ दोपहर में घर से सावधानी पूर्वक निकले 
८ पुदीना ,खरबूजा ,तरबूज ,आम ,शहतूत ,लीची ,बेल आदि का सेवन करे 
९ खीरा ,ककड़ी ,प्याज ,टमाटर आदि की सलाद खाएं। 
१० नियमित रूप से दिन में एक बार स्नान जरूर करें। 
केरी का पना कैसे बनाएं ?


कच्ची केरी को उबाल ले ,मसल लें ,काला नमक ,जीरा ,पुदीना ,चीनी ,पानी मात्रा अनुसार मिलाकर पिये। 

चिकित्सा कराये --- सोच समझ कर -----

चिकित्सा कराये --- सोच समझ कर -----
          इस दौड़ लगाती दुनिया में किसी के पास भी कुछ समय निकालना बड़ा मुस्किल सा हो गया है। हर व्यक्ति ये चाहता है कि जो भी काम हो तत्काल हो जाये यानि चमत्कार हो जाये आँख बंद की और काम हो गया। लोग इसी भागदौड़ की जिंदगी में खुद के स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ कर लेते है। हमारे देश में यह इतना विकराल हो गया कि सरकार को इस चमत्कार शब्द पर पाबन्दी लगानी पड़ी। कुछ नीम हकीम अपनी प्रेक्टिस मे इस शब्द का बेजा इस्तेमाल कर रहे थे, मुख्य रूप से आयुर्वेद चिकिसा में।
            चिकित्सा एक ऐसा जिम्मेदारी  का काम है जो पूर्णतया जीवन से जुड़ा हुआ है। इस कार्य को भी लोगों ने गैर जिम्मेदारी से करना शुरू कर रखा है। इस कार्य को बढ़ावा देने में निम्न बातों  पर ध्यान देने की आवस्यकता है
             कुछ लोग अंधविश्वास के मकड़जाल में इतने भंयकर रूप से जकड़े हुए हैकि उनको बीमारी भी भूतबाधा ही दिखाई देती है।  इस बात का फायदा उठाने के लिए कुछ इस प्रकार के लोग, जिसमे नीमहकीम ,तांत्रिक ,भोपा ,बाबा आदि आते है इसका फायदा उठाते है। ये लोग  इलाज के नाम पर कुछ भी  आधी -अधूरी दवा पकड़ा देते है और कुछ झूठमूठ का मंत्र फूंक देते है।  इनके जाल में अनपढ़ ही नहीं पढ़े -लिखे लोग भी आ जाते है। इसका मुख्य कारण ये आपाधापी भरी जिंदगी है जिसमे लोग इतने उलझे हुए है कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि सही क्या है और गलत क्या है।  लोग भूल जाते है कि वो क्या कर रहे है।वे सोचते है कि  बस जल्दी से कोई जादू की पुड़िया मिल जाये और मै झटपट ठीक हो जाऊ ,लेकिन ऐसा होता नहीं है। उल्टा उनको नुकसान ही होता है।
                 दुनिया में हर तरह के लोग रहते है हम उनके बारे में अलग अलग धारणा अपने आप बना लेते है कि अमुक आदमी सही है अमुक गलत है इसी प्रकार की धारणा लोग चिकित्सक के बारे में भी बना लेते है। लेकिन मेरा यह मानना है कि चिकित्सक के बारे में कोई भी धारणा बनाने से पहले उसका व्यहार उसकी योग्यता जरूर देखनी चाहिए। यहाँ अच्छे लोग भी है तो बुरे लोग भी है।
                  चिकिसा एक सेवा युक्त कार्य है जिसमे सुधार और बिगाड़ दोनों सम्भव है। कोई भी योग्यता धारी चिकित्सक किसी के साथ धोखा छल प्रपंच नहीं करेगा। लेकिन हम ये धारणा बना लेते है कि सभी चिकित्सक लुटेरे होते है और जो हमारे घर के पास नीमहकीम बैठा है वह कम पैसे में शर्तिया इलाज करता है। ऐसी धारणा से हम खुद अपना जीवन किसी ऐसे आदमी को सौंप देते है जो शरीर के बारे बस इतना जानता है कि इसका शोषण कैसे किया जा सकता है उनकी मीठी मीठी बातों में उलझ कर हम इन मुन्ना भाइयो से इलाज जैसा सुरक्षित कार्य करवा लेते है।
                 "आयुर्वेद ग्रंथों में लिखा है कि गरम गरम सीसा पी लेना अच्छा है लेकिन किसी कुवैध (नीमहकीम )से इलाज कराना ख़राब है।"
                    

स्वस्थ रहने का उपाय-शारीरिक श्रम

(1) भुमिका                                               भौतिक या आध्यात्मिक कोई भी पुरूषार्थ स्वस्थ शरीर से ही सम्भव है.शारीरिक सामर्थ्य बनाये रह कर ही हम जीवितो मे गिने जा सकते है.बिमार और दुर्बल व्यक्ति तो अर्धमृतक ही बने रहते है . देह गत पीडा के साथ असफलता और असमर्थता की मनोव्यथा भी जुडी रहती है.अतः उचित यही है ,कि स्वास्थ्य के सम्बंध मे उपेक्षा न बरती जाये.                                                                                                              (2)किस पर निर्भर है स्वास्थ्य ?                                                                                                                                              स्वास्थ्य दवादारू पर निर्भर नही है . वह पैसो से भी नही खरीदा जा सकता , कीमती चीजे खाकर आरोग्य रक्षा की बात सोचना भी व्यर्थ है.यह सुरक्षा तो आहार - विहार ,श्रम , और संतुलन पर निर्भर रहती है.जो इनकी विधि व्यस्था बनाये रखता है वही स्वास्थ्य का आनंद लेता है और वही कमजोरी एवम बिमारी मे अपनी रक्षा करने मे समर्थ होता है.


                                                                                                                   
(3)शारीरिक श्रम ना करने से क्या होता है ?
                              काम ना आने वाले चाकु को भी जंग खा जाता है, काम मे ना आने से शरीर भी अपनी क्षमता खो बैठता है. जो खाते है ,उसे पचाने एवम शरीर के कलपुर्जो  को गतिशील बनाये रखने के लिये परिश्रम करते रहना आवश्यकहै,जो कडी मेहनत करते है ,उनके अंग प्रत्यंग मजबूत रहते है.जब कि आराम तलब और कामचोरो की काया अशक्त होती चली जाती है, न उनका अन्न  पचता हैऔर न गहरी नींद आती है,अभ्यास न होने से जरा सा काम आ पड्ने पर थक जाते है ,बाहर से ठीक दिखते हुये भी कडी मेहनत न करने वाले लोग भीतर से खोखले होते चले जाते है,भूख घटती जाती है,और रस रक्त भी कम बनता है,उतने भर से जीवन यात्रा को दूर तक खीचते ले जाना सम्भव नही रहता , आरामतलबी एक अभिशाप है, शारीरिक मेहनत से जी चुराना और अस्वस्थता को आमंत्रण देना एक ही बात है,
(4)मानसिक श्रम का स्वास्थय पर प्रभाव -
                               लोग दिमागी काम को आजकल ज्यादा महत्व देने और शारीरिक मेहनत की उपेक्षा करने लगे है,इस आधुनिक  युग मे इतनी सुविधाये हो गई है कि हम घर बैठे बैठे कुछ भी ओडर कर सकते है और मनुस्य से ज्यादा मशीन काम करने लग गई है औरते भी पुरूषो के बराबर ओफिस मे बैठ कर काम करती है ,मेरे एक इंजिनियर मित्र है वो कहते है कि" हमने टेलिविजन का आकार छोटा कर दिया है लेकिन हमारे तौंद का आकार कब बढ गया पता ही नही चला", बैठे बैठे लगातार मानसिक श्रम करने से मोटापा, गैस,एसिडिटी, अपचन, पाईल्स , जोडदर्द आदि बिमारिया घर कर लेती है, मानसिक श्रम करना भी जरूरी है लेकिन साथ ही शारीरिक श्रम करना बहुत ही जरूरी है,
(5) क्या कहती है प्रकृति ?
                                  पशु , पक्षी, अपने आहार की खोज मे तथा विनोद के लिये स्वभावतः इधर-उधर भागते दौडते रहते है फलतः उनका शरीर सुढ्र्ढ और समर्थ बना रहता है ,प्रकृति की इच्छा यही है , कि हर जीव कडी मेहनत का अभ्यासी बने और स्वास्थ्य एवम पूर्ण आयुष्य का सुख भोगे, मानसिक श्रम से अधिक पैसा कमाया जा सकता है,पर शारीरिक श्रम की अपनी उपयोगिता है.कम कमाया जाये या न कमाया जाये तो भी स्वास्थ्य  और आरोग्य की द्रष्टि से मेहनत हर हालत मे करनी चाहिये जिससे पसीना निकले और गहरी नींद का आनंद मिले.
(6)शारीरिक श्रम की उपयोगिता

                                   स्वास्थ्य रक्षा के लिये यह नितांत आवश्यक हो गया है कि हर किसी के मन मे शारीरिक श्रम की महता एवम उपयोगिता भली प्रकार बिठा दी जावे . उसके बिना न हमारी गरीबी दूर होगी न बेकारी . न बिमारी से बचेंगे न कमजोरी से . प्रगति तथा सफलता पाने के लिये परिश्रम और पुरूषार्थ आवश्यक है.और इसे वही कर सकता है जिसके शरीर मे पर्याप्त सामर्थ्य है,उक्त तथ्य जिस दिन हमारी समझ मे आजायेगा , उसी दिन से शारीरिक श्रम व कडी मेहनत के पसीना बहाने वाले कार्यो के प्रति रुची पैदा हो जायेगी , उन्हे आरोग्य का मूल समझते हुये अपनी नियमित दिनचर्या मे उपयुक्त स्थान दिया जाने लगेगा, उचित परिश्रम से शरीर घिसता नही वरन सशक्त और मजबूत बनता है,आलसी मन इसे स्वीकार ना करे तो भी उसे बल पूर्वक समझाना चाहिये कि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की सम्भावना देहगत परिश्रम पर बहुत निर्भर करती है. मेहनत से बचने का दंड मनुष्य को बिमारी व कमजोरी से उत्पन्न परेशनियो के रूप मे भुगतना पडता है.


(7)उपसँहार
                                  जिन्हे स्वस्थ रहना है वे मन को हल्का रखे , हँसने की आदत डाले और चित को प्रशन्न व संतुष्ट रखाकरे , जो अभाव तथा कठिनाईयाँ सामने है उनका धैर्य , साहस और सुझबूझ केसाथ मुकाबला करेँ,
                                  जिन्हे सुविधा हो वे लोग पार्क मे भ्रमण करे , व्यायामशाला जाये ,जिम मे जाकर मेहनत करे ,बच्चो के साथ खेले , घर पर पोधे लगाये , पोधो की देख भाल करे , औरते जो घर पर रहती है वो पार्क मे जाये , सब्जी लेने बाजार जाये ,मंदिर जाये ,जो औरते नौकरी पेसा मे है वे नियमित रूप से घूमने जाया करे ,शरीर के हर अंग को पूरी मेहनत मिले और पसीना निकले ऐसे कार्य के लिये हर व्यक्ति को समय निकालना ही चाहिये  , स्वास्थ्य रक्षा की द्रष्टि से यह प्रक्रिया अति आवश्यक है,.