Friday 31 March 2017

भोजन कैसे करे ?? How to take food ?

हमे जीवित रहने के लिए जितनी हवा और पानी की आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता आहार की भी है। आहार मतलब भोजन । भोजन ही है जो हमारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है । जिस प्रकार कोई वाहन बिना इंधन के नही चल सकता उसी प्रकार यह प्राणियों का शरीर भी बिना आहार के नही चल सकता है ।
पशुओं , पक्षियों, जानवर सभी प्रकार के जीवो को भोजन की जरुरत होती है । ये दिनभर भोजन के लिए ही मेहनत करते है । इनका काम किसी भी प्रकार से अपना पेट भरना होता है । ये सभी प्राणी बहुत ही सावधानी पूर्वक अपना आहार खोजते है और जो उचित होता है वही ग्रहण करते है । किसी किसी पशु या पक्षी को आपने भी देखा होगा क़ि कई बार वे घास या किसी अभक्ष्य आहार को सूंघ कर छोड़ देते है । मतलब यह है कि पशु पक्षी भी भोजन की पूरी प्रक्रिया को फॉलो करते है । उन्हें प्रकृति ने सिखाया है कि कोनसा आहार सही है और कौनसा आहार उनके लिए गलत है ।पशुओं के लिए कहावत भी है कि "ऊंट छोड़े आक और बकरी छोड़े ढाक"
मगर एक इंसान यानी मनुष्य ही है जो इस आहार विधि को अपनाता नही है । जो मिला जिस भी स्थिति में मिला चर लिया । कई बार तो जो खाने लायक नही था शास्त्रो में निषिध्द है उसे भी खा लेते है । दिन भर में दश  चाय बीस गुटका तीस प्रकार की चाट पकोड़ी और पचास प्रकार की शराब कोल्ड ड्रिंक पता नही क्या क्या ?
यह पेट मनुष्य को सबसे बड़ा कचरे का डिब्बा दिखाई देने लगा है ।जहा मिला खा लिया जैसा मिल गया खा लिया । सुबह का बनाया हुआ शाम को फिर से गर्म करके खा लिया । रात को बनाया उसे सुबह खा लिया । कोई भी नियम खाने के लिए नही बना रखे है । बस अपनी मर्जी से सब चल रहा है । इसीलिए आजकल तरह तरह के रोगों ने मनुष्य को घेर रखा है ।
आयुर्वेद के मनीषियों ने हजारों वर्ष पहले ही ऐसे ऐसे नियम बना दिए थे जो आज भी बहुत ही और एकदम सही भी है । यदि इन नियमो का पालन किया जाये तो कई प्रकार के रोगों से तो ऐसे ही मुक्ति मिल सकती है । हम आज इस लेख में यह चर्चा करेंगे क़ि :- भोजन कैसे करे ? How to take meal ?
आहार सम्बन्धी विचार ( Thoughts about Diet ):- 
1. मात्रा निर्धारण :-  सबसे पहले भोजन की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए ।  हमें यह जानकारी कैसे हो ? इसके लिए कहा गया है कि आहार की मात्रा "बलापेक्षिणी" अर्थात बल के अनुसार मात्रा का निर्धारण किया जाता है । प्रकृति ने हमें अपने खुद की भूख की क्षमता का ज्ञान करने योग्यता दी है । हमे पता चलता है कि हमे कितनी भूख है मेरी जठराग्नि कितना भोजन पचाने में समर्थ है । इस क्षमता ( Digestive capacity )का  आभास लगभग सभी को होता है । अतः सबसे पहले मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । और फिर मात्रानुसार भोजन करे ।
2. गुरू और लघु आहार का निर्धारण :- मात्रा के बाद लिखा हैं कि मात्रा निर्धारण करते समय अग्निबल Digestive capacity के साथ साथ  आहार द्रव्यो का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि आयुर्वेद के मनीषियों ने लिखा है :-  'गुरूणाम आर्धसोहित्यम लघुनां तृप्तिरिष्यते' अर्थात गुरू (तेल , घी में पके हुए पदार्थ अथवा वे पदार्थ जो जल्दी नही पचते ) पदार्थो के भोजन से आधी तृप्ति का होना ही पूर्ण भोजन समझे और लघु (जल्दी पचने वाले ) पदार्थो को तृप्ति से अधिक सेवन ना करे ।
3. आहार विधि :- आहार को कैसे ग्रहण करे ? कौनसा भोजन रोजाना कर सकते है और कौनसा भोजन सप्ताह में एक बार करे । किस प्रकार व्यवस्था हो ,इसके लिए चरक संहिता में आठ प्रकार की विधि बताई गई है :-
1.प्रकृति(Natural form)
2.करण(Preparation)
3.संयोग(Combination)
4.राशी(Quantity)
5.देश(Haleitat)
6.काल (Time)
7.उपयोग संस्था(Direction of use)
8.उपयोक्ता (User)
यह बहुत ही विस्तृत विषय है इस पर हम चर्चा करते रहेंगे । इस अष्ट विधि का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है ।
अपनी प्रकृति के अनुसार तथा आहार की प्रकृति को देख कर भोजन करना चाहिए । जैसे वात प्रकृति के लोगो को वायुकारक पदार्थो को नही खाना चाहिए । पित्त वालो को गर्म अर्थात पित्त कारक आहार से दूर रहना चाहिए ।
करन मतलब भोजन बनने की प्रक्रिया , भोजन को बहुत शांत और सात्विक मन से बना कर ही खाये । यदि यह संभव ना हो तो जल हाथ में लेकर मन में अपने इष्ट देव को याद करके भोजन को सात्विक मन से खाना चाहिये।
संयोग का भी ध्यान रखे , विपरीत प्रकृति के आहार को साथ में नही खाना चाहिए जैसे :- दही और खीर , दूध और लहशन, आचार के साथ दूध , यह सब कभी भी नहीं खाने चाहिए ।
मात्रा से अधिक भोजन अजीर्ण को उत्पन्न करता है , मात्रा से कम कृशताकारक होता है ।
पचने पर ही भोजन करना चाहिए अन्यथा उसका भी समुचित पाचन नही हो पाता है ।
इच्छित यानि इष्ट स्थान पर ही भोजन करे , प्राचीन परंपरा के अनुसार रसोई घर ही इष्ट जगह मानी जाती है अतः जहाँ तक हो सके तो अपने घर पर ही भोजन करना चाहिए ।
जल्दी जल्दी भोजन नही करना चाहिए , तथा ना ही धीरे धीरे भोजन करना चाहिए क्योकि ये दोनों प्रकार एक प्रकार की आदत को इंगित करते है ।आराम से बैठ कर सरल तरीके से आनंद के साथ भोजन करने से लाभ मिलता है
भोजन करते समय में यह ध्यान रखना चाहिए क़ि कम से कम बात करे । धर्म शास्त्रों में भोजन करते समय मौन रहने का बड़ा ही महत्त्व बताया गया है ।
और अंत में पुनः एक बार यह यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जितनी पाचन शक्ति है और जितना हम आराम से पचा सकते है उतना ही भोजन करना चाहिए
। माधव जी ने लिखा है :-
अनात्मवन्तः पशुवद भुंजन्ते ये नराधमाः ।
रोगानिकस्य ते मूलजीर्णे प्राप्नुवन्ति हि ।। माधव निदान

Friday 10 March 2017

चर्म रोग (Skin disease) में आयुर्वेदिक दवा :-

विभिन्न प्रकार के अशुद्ध या विरोधी आहार विहार के कारण शरीर में जब वात पित्त और कफ की वृद्धि हो जाती है और वह बढे हुये त्रिदोष त्वचा, रक्त , मांस,  तथा लसिका को दूषित कर देते है जिससे विभिन्न प्रकार के चर्म रोग होने लगते है ।

आयुर्वेद ग्रंथों में चर्म रोगों को कुष्ठ रोगों में गिना गया है ।ये चर्म रोग जिन्हें कुष्ठ कहा गया है ये  अठारह प्रकार के बताये है ।
इनका भी विभाजन किया गया है 1.महाकुष्ट 2. क्षुद्र कुष्ठ ।

महाकुष्ठ सात होते है जबकि क्षुद्र कुष्ठ ग्यारह प्रकार के बताए गए है । आयुर्वेद एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है जिसमे सभी रोगों का विस्तार से वर्णन किया गया है ।

महाकुष्ठ :- सात है

1. कपाल
2.उदुम्बर
3.मंडल
4.ऋष्य जीभ
5.पुण्डरीक
6.सिध्म
7.काकनक

क्षुद्र कुष्ठ :- ग्यारह होते है ।

1. एक कुष्ठ
2. चर्म कुष्ठ
3 किटीभ
4 विपादिका
5 अलसक
6 दद्रु
7 चर्म दल
8 पामा
9 विस्फोटक
10 शतारु
11 विचर्चिका

जिस प्रकार चर्म रोगों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार औषधियों की भी विस्तृत चर्चा की गई है । अब मुख्य रूप से सही योजक (चिकित्सक ) हो तो आयुर्वेद चिकित्सा से भी बहुत लोगो को लाभांवित किया जा सकता है । कुछ औषधियों का जिक्र यहाँ किया जा रहा है । इनको सामान्य रूप में काम में लिया जा सकता है ।

चिकित्सा (Treatment)

चर्म रोगों की सामान्य चिकित्सा में :-

वात दोष प्रधान चर्म रोग :- घृत पान
पित्त दोष प्रधान चर्म रोग :- वमन
कफ दोष प्रधान चर्म रोग में :- रक्त मोक्षण, विरेचन ।

औषदिय चिकित्सा :-

महातिक्त घृत
खदिरारिष्ट
गंधक रसायन
मदयंत्यादि चूर्ण
सरिवादी हिम
महामंझिष्ठादि कषाय
तुवरक तैल
बाकुची योग
रसादि लेप
गुलाबी मलहम
जीवंत्यादि मलहम
उपरोक्त दवाइयां बाजार में उपलब्ध है । इनके अलावा भी बहुत सी दवा है जिन्हें चिकित्सक अपने विवेक से तैयार करके काम में ले सकते है ।

अपने जीवन में आयुर्वेद को अपनाए । जीवन सुखमय भी होगा और जीने का आनंद भी आयेगा ।

डॉ वेदप्रकाश कौशिक
आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर राजस्थान

Tuesday 7 March 2017

इन्द्रायण(Indrayan/Bitter Apple Herb) :- गर्भ धारण में उपयोगी

प्रजास्थापन महा कषाय (procreants) का एक औषध द्रव्य है इन्द्रायण । इसे ऐंद्री, इंद्र वारुणी, और इन्द्रायण के नाम से जाना जाता है।
परिचयः

रस- तिक्त,
गुण - गुरू, स्निग्ध, सर ।
वीर्य- उष्ण, विपाक- कटु,
प्रभाव- रेचक,
और दोष कर्म - कफ नाशक होता ।
इसकी पोटेंसी एक वर्ष बताई गई है ।

यह औषधि सूत्र प्रतानी के रूप में प्रायः राजस्थान , बंगाल, बिहार, की रेतीली भूमि में पाई जाती है ।

इसके पत्र एकांतर होते है ।
पुष्प पीत और घटाकार (मटके के आकार के) होते है । फल- पीत(पीले रंग के )
और  बीज अंडाकार धूसर होते है ।
उपयोग:-

स्त्रियों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण औषधि है । स्त्रियों में यह बल बढाने में बहुत ही उपयोगी है जिन महिलाओं में गर्भ धारण की क्षमता कम होती है उनमें यह गर्भाशय की कार्य क्षमता को बढ़ा कर गर्भाशय को मजबूत कर गर्भ धारण के योग्य बनाती है इसे महिलाओं में वाजीकरण बढाने वाली अषधि के रूप में जाना जाता है।

जिन महिलाओं में समय से पहले आर्तव (mentruretion) आना बंद हो जाता है या बहुत ही कम मात्रा में आता है उस अवस्था में यह औषधि कारगर सिद्ध होती है इसलिए इसके बारे में लिखा है कि यह नष्ट आर्तव में बहुत ही उपयोगी है ।
 
अन्य रोगों में भी यह कार्य करती है जैसे असमय में बालो के सफेद होने पर इसके बीजों से तैयार किया हुआ तैल से अभ्यंग (बालो को तेल में भिगोना अभ्यंग कहलाता है ) करने से बाल असमय में सफेद नही होते है ।
इन्द्रायण की जड़ के लेप को शौथ, विद्रधि, उपस्तम्भ  में लेते है । यह कमला और प्लीहोदर रोग को भी ठीक करता है ।

इन्द्रायण का विशेष रूप से स्त्रियो के गर्भ धारण की क्षमता बढाने में निम्न लिखित प्रकार से उपयोग किया जाता है ।

बेल पत्र के पत्तो के साथ इन्द्रायण की जड़ को पीस कर 10-20 ग्राम की मात्रा में नियमित प्रातः काल और सायंकाल स्त्री मरीज को पिलाने से वह गर्भ धारण करने में सक्षम हो जाती है ।

गर्भ धारण के बाद कभी कभी गर्भ अपने स्थान से नीचे की ओर चला जाता है उस समय भी इसकी जड़ो को पीसकर प्रसूता स्त्री के बढ़े हुए पेट पर लेप करने से पेट अपनी जगह पर आ जाता है ।

इसके मुख्य योग जो बाजार में मिलते है :-

1 नारायण चूर्ण
2 सुख विरेचनी वटी

डॉ वेदप्रकाश कौशिक
आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर राजस्थान

Sunday 5 March 2017

CHURNA (चूर्ण)


Definition

Churna is a fine powder of drug and drugs.

General Method of preparation

Drugs mentioned in the yoga are cleaned and dried properly. They are finely powdered and sieved. Where there are a number of drugs in yoga. The drugs are separately powdered and sieved. Each one of them ( powder) is weighed separately, and well mixed together. As some of the drugs contain more fibrous matter than other, this method of powdering and weighing them separately, according to the yoga, and then together , is preferred.

Churna are use in ayurvedic treatments. Many disease are cure by churna. For example that's triphala is useful in constipation and any other disease. Triphala is make by three fruit of medicine plant. Amala , haritaki , and bhibhitaka.

Many other churna use in ayurvedic treatments. That is panch sakar churna , Avipatikar churna , Ajmodadi churna, Sitopaladi churna, Pusyanug churna etc.

Dr Vedprakash Kaushik
Ayurved medical officer Rajsthan

Saturday 4 March 2017

अम्लपित्त (Acidity) की दवा :- अविपत्तिकर चूर्ण

आजकल लगभग सभी लोगो को एसिडिटी की समस्या रहती है । मेरी प्रेक्टिस में ऐसे बहुत मरीज आते है जो इस रोग से ग्रसित रहते है । आजकल का खान पान बहुत ही खराब हो गया है । दिन भर में कुछ भी खा लेना कुछ भी पी लेना एक फ़ैसन हो गया है।

जंक फूड , चाय , कोफ़ी, तली हुई वस्तु यह सब बाजार में प्रचुर मात्रा में प्रयोग में लिया जाता है । बाजार में जाने वाले या वहां पर काम धंधा करने वाले लगभग सभी लोग इनका भरपूर मात्रा में बिना किसी भय के सेवन करते है ।और बार बार चाय पीने तथा जंक फूड जैसे आहार से अम्लपित्त (Acidity) हो जाती है ।

यदि अम्लपित्त से ग्रसित है तो निम्न लिखित चूर्ण को घर पर बनाये और नियमित रूप से सेवन करे । यदि बनाने में कोई समस्या हो तो किसी भी नजदीकी आयुर्वेद मेडिकल स्टोर से खरीद कर प्रयोग कर सकते है । यह बाजार में "अविपत्तिकर चूर्ण"  के नाम से बिकता है ।

अविपत्तिकर चूर्ण :-

द्रव्य और निर्माण विधि :-

सौंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, हरड़ का दल, बहेड़ा का दल, आँवला दल, नागरमोथा, नौसादर, बायबिडंग, छोटी इलायची, और तेजपात, प्रत्येक 10-10 ग्राम।
लौंग 110 ग्राम ,निशौथ का मूल 220 ग्राम , मिश्री 440 ग्राम लेकर , सबको मिलाकर कपड़छान चूर्ण कर के रख लें । यह मिश्रण ही अविपत्तिकर चूर्ण के नाम से मिलता है ।

उपयोग एवं मात्रा  :- अम्लपित्त और परिणाम शूल में इसे सुबह शाम ठन्डे जल के साथ 3 से 5 ग्राम तक नियमित रूप से लें ।

अम्लपित्त की यह उत्तम औषधि आपके जीवन को सुखमय बना देगी।

डॉ वेदप्रकाश कौशिक
आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर राजस्थान

Wednesday 1 March 2017

नाड़ी परीक्षा :- रोग परीक्षण की पुरानी पद्धति

मैं  26 फरवरी 2017 को भरतपुर ,राजस्थान में  "आधुनिक परिपेक्ष्य में नाड़ी निदान का महत्त्व" विषय पर आयोजित सेमीनार में भाग लेने गया था । इस सेमीनार के आयोजक "राजस्थान ह्रदय रोग चिकित्सा समिति" एवं  "आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर राजस्थान" (अमोर) थे। यह सेमीनार पूर्ण रूप से स्वतन्त्र सम्भासा थी इसमें राजकीय अनुदान प्राप्त नही हुआ था इसलिए भी यह ज्यादा महत्वपूर्ण थी । क्योंकि राजस्थान में इस प्रकार की यह शायद पहली ही सम्भासा (सेमीनार) थी ।

इस सेमिनार में नया अहसास हुआ। बहुत ही नयापन देखने को मिला । हालांकि विषय पूराना था । जो क़ि लगभग लुप्त हो चुका है । कोई भी आयुर्वेद चिकित्सक आजकल इस रोग परिक्षण की विधा को रोग परिक्षण में प्रयोग नही करते है । हालांकि हाथ लगाकर ये जरूर देख लेते है कि नाड़ी (puls) चल रही है या नही । इसके अलावा इस  विधा का जो महत्वपूर्ण पार्ट है उसकी तरफ किसी किसी आयुर्वेद चिकित्सक का ही ध्यान जाता होगा अमूमन यह पद्धति लुप्त हो चुकी है ।पहले ज़माने में जरूर कई लोग "नाडिया वैद्य" के नाम से जाने जाते थे । आजकल यह सब चलन में नही है ।

राजस्थान हृदय रोग चिकित्सा समिती के अध्यक्ष डॉ चंद्रप्रकाश दीक्षित ने इस विषय पर एक पुस्तिका लिख़ी है और गहन अध्ययन करने के बाद यह सेमीनार आयोजित करवाई जोकि बहुत ही अच्छा कार्य है ।

इस सेमिनार की दो ख़ास बाते रही एक तो यह क़ि यह विषय पुराना था , और दूसरी बात यह थी क़ि इस विषय पर भाग लेने वाले आयुर्वेद जगत के वे लोग थे जो आयुर्वेद की पुरानी विधाओं (जैसे अग्निकर्म, जलोका, पंचकर्म , नाड़ी परीक्षा)  को जन सामान्य तक लाने के लिए नये और  सृजनात्मक  तरीके से आयुर्वेद का प्रचार करना चाहते है जिनको डॉ विमलेश विनोद कटारा ने "अमोर" नाम दिया है ।

नये और पुराने का यह मेल मुझे बहुत ही अच्छा लगा ।क्योकि जब सामने से कोई चमकदार रोशनी आती है तो उस रोशनी से आँखे चौंधिया जाती है । जोकि आजकल आयुर्वेद के साथ हो रहा है सब कुछ आधुनिक होता जा रहा है कुछ भी दिखाई नही दे रहा है आयुर्वेद किस ओर जा रहा है और चौन्धियाये हुए आँखों को मिचमिचाते हुए आयुर्वेद विशेषज्ञ कहा चले जा रहे है । कुछ भी समझ में नही आ रहा है । सरकार भी आयुर्वेद के आधुनिकीकरण के नाम पर वेलनेश सेंटर खोल कर आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर्स से आधुनिक चिकित्सा करवाने लगी है ।ऐसा लगने लगा है कि आधुनिकता के नाम पर आयुर्वेद को और  आयुर्वेद की वास्तविक आत्मा को समाप्त किया  जा रहा है । आयुर्वेद को हर्बल नाम देकर भी आधुनिक बनाया जा रहा है ।

आयुर्वेद की रोग निदान (डायग्नोस) पद्धति तो लगभग चिकित्सक भूल चुके है । रोगों का नाम भी अब वात पित्त कफ जनित न होकर मॉडर्न पद्धति के अनुसार होते जा रहे है । ये सब जरूरी भी है क्योंकि जिंदगी की दौड़ में यदि कदम मिलाकर चलना है तो गति को तेज रखना ही पड़ता है । लेकिन अपनी संस्कृति को भूल कर दुसरो की संस्कृति अपना लेना बुद्धिमानी नही हो सकती । अपनी विधा को सदैव जिंवंत रखना हमारा कर्तव्य है । सामने से आने वाली रोशनी आँखों को बाधित करती है। लेकिन जब वही रोशनी पीछे से आये तो रास्ता साफ साफ दिखाई देने लगता है ।

इस सेमिनार में दो प्रबुद्ध विद्वानों के व्याख्यान भी सुनने को मिले जो बहुत ही सारयुक्त और प्रेरित करने वाले थे ये महान हस्ती थे एक आयुर्वेद जगत के महान लेखक डॉ बनवारी लाल गौड़ और दूसरे आई .एफ .ओ. श्री दीप नारायण पांडे । श्री पांडे जी की कही हुई कुछ बातों ने भी मुझे आत्म चिंतन के लिए मजबूर कर दिया । सभी उपस्थित अमोर्स से एक बात कही क़ि आयुर्वेद चिकित्सको के परिवारों में केंसर, डाइबिटीज, बी पी , मानसिक रोग और मोटापा ये पांच प्रकार के  रोग होने ही नही चाहिए । परिवारों के अलावा सगे संबंधियों को भी इन रोगों से बचा के रखना आप लोगो का कर्तव्य  है । क्योंकि आप लोगो का पहला उद्दयेश्य "स्वस्थयस्य स्वास्थ्य रक्षणम" है । सिर्फ आयुर्वेद ही वो चिकित्सा पद्धति है जो सबको स्वस्थ रखने की क्षमता रखती हैं। उनके विचारों से लगा कि जनता जनार्दन को हमसे कितनी अपेक्षाएं है और हम भाग रहे है मॉडर्न साइंस की ओर ।

डॉ दीक्षित के नाड़ी निदान का आधुनिक परिपेक्ष्य में क्या महत्त्व है इस विषय पर दिए गए व्याख्यान सुनकर शास्त्रोक्त ज्ञान का महत्त्व समझ में आया ।

डॉ चंद्रप्रकाश दीक्षित की लिखी पुस्तक "आयुर्वेदीय निदान की अनूठी पद्धति :- नाड़ी परीक्षा" का विमोचन भी किया गया । जिसमे उन्होने आयुर्वेद की संहिताओं और निघंटुओ में से नाड़ी के बारे में लिखी व्याख्याओं को बहुत सरल तरीके से लिखा है। आयुर्वेद चिकित्सको के लिए यह लघु पुस्तक बहुत ही कारगर साबित हो सकती है । नाड़ी परीक्षा के सम्बन्ध में योग रत्नाकर में लिखा है :-
"रोगाक्रान्तस्य शरीरस्य स्थानान्यष्टौ परिक्षयेत ।
नाड़ी मुत्रं  मलं जिव्हा शब्दम स्पर्श दर्गाकृती ।।"
इस अष्टविद परीक्षा में नाड़ी परीक्षा को प्रथम स्थान पर रखा है ।

नाड़ी परीक्षा की इस सेमिनार के बहाने से पुरानी आयुर्वेद की धरोहरो को जनसामान्य के लिए सामने लाने की यह पहल आयुर्वेद चिकित्सको के लिए पीछे  से आती, रास्ता दिखाती रोशनी के समान है । अंधेरो से घिरे रास्ते में लोगो की वांछित अपेक्षाओं को पूर्ण करने लिए का हम सबको मिलकर इसका स्वागत करना चाहिए । और इस प्रकार की स्वतन्त्र सम्भासाओ का आयोजन करते रहना चाहिए ।

डॉ वेदप्रकाश कौशिक
आयुर्वेद मेडिकल ऑफिसर राजस्थान